किसी भी वस्तु को ठीक से देखने के लिए एक समुचित दूरी पर रखना होता है. आँख के बहुत नजदीक रखी वस्तु भी नजर नहीं आती और बहुत दूर रखी वस्तु भी. जीवन भी कुछ ऐसा ही है जब हम उसमें इतना घुस जाते हैं तब चीजें धुंधली होने लगती हैं और जब उससे दूर निकल जाते हैं तब वह हमारे हाथ से फिसलता हुआ नजर आता है. कभी अतीत के स्वप्न हमें वर्तमान से दूर ले जाते हैं तो कभी भविष्य की व्यर्थ आशंका हमारी ऊर्जा को बहा ले जाती है. ध्यान ही हमारे भीतर वह दृष्टि पैदा करता है जिससे जीवन जैसा है वैसा नजर आता है. वर्तमान के क्षण में जब मन टिकना सीख जाता है तभी वह अस्तित्त्व से प्राप्त अपार क्षमता को देख पाता है. यह ऐसा ही है जैसे कोई आँखें बंद करके कमरे से बाहर निकलने का प्रयास करे और दरवाजे के निकट आते ही अपना मुख मोड़ ले और विपरीत दिशा में चलने लगे. यदि ऐसा हर बार होने लगे तो वह यह निर्णय कर लेगा इस कमरे में दरवाजा है ही नहीं. ऐसा व्यक्ति जीवन के मर्म से वंचित ही रह जाता है.
ध्यान ही हमारे भीतर वह दृष्टि पैदा करता है जिससे जीवन जैसा है वैसा नजर आता है, सच कहा आपने लेकिन बिडम्बना है कि समय रहते हम इस बात को समझ नहीं पाते हैं, बहुत देर कर देते हैं और जीवन यूँ ही उहापोह में गुजर जाता है
ReplyDeleteजब जागें तभी सवेरा ! स्वागत व आभार !
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