संत कहते हैं, जब तक हम मन के द्वारा चलाये जाते हैं हम साधक नहीं हैं, जब हम मन को चलाते हैं तब साधक की श्रेणी में आते हैं. मन को चलाने का अर्थ है मन पर कार्य करना. जब हम देह द्वारा कार्य करते हैं, हमारा कार्य व्यायाम नहीं कहा जा सकता, जब देह पर कार्य करते हैं अर्थात भार उठाना, दौड़ना, आसन आदि, उसे ही व्यायाम कहते हैं. देह की शक्ति उसे हिलाने-डुलाने से बढ़ती है पर मन की शक्ति उसे स्थिर और एकाग्र रखने से बढ़ती है. धारणा, ध्यान, चिंतन, मनन, समाधि यह सब मन पर कार्य करने की विधियां हैं. प्रकृति के साथ कुछ समय बिताने से भी मन सहज ही शांति का अनुभव करता है. मंत्र जाप अथवा ध्यान की कुछ मुद्राओं में बैठने मात्र से भी मन एकाग्र होता है. कोई नदी जब शांत हो तो उसकी तलहटी भी दिखाई देती है और जब पानी का बहाव तेज हो तो पानी के अतिरिक्त कुछ भी स्पष्ट नहीं होता. मन भी एक धारा की तरह है, यदि उसका बहाव धीमा होगा तो आत्मा का प्रतिबिम्ब उसमें झलकेगा, जब हम विचारों से घिर जाते हैं तब स्वयं से दूर चले जाते हैं, यही तनाव का कारण बनता है.
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