नारद भक्ति सूत्र की व्याख्या करते हुए गुरु जी आगे कहते हैं, तीन गुणों से यह जगत बना है. प्रेम की अभिव्यक्ति भी इन्हीं गुणों से होती है. तमोगुणी प्रेम में पीड़ा देते हैं और पीड़ा लेते हैं. रजोगुणी प्रेम किसी न किसी कारण से होता है, गुणों के आधार पर या किसी योग्यता के आधार पर होता है, यह प्रेम स्वार्थी होता है. भगवान के मंदिर में लोग किसी न किसी कामना से जाते हैं. सतोगुणी प्रेम बिना किसी कारण के होता है. भजन का अर्थ होता है भागीदारी, ईश्वर के गुणों को ग्रहण करना तथा अपने सुख-दुःख को भगवान के साथ बाँट लेना. परमात्मा और समष्टि के प्रति जब किसी का प्रेम भाव अकारण बहने लगता है तो वही प्रेम भक्ति बन जाता है. इसकी तुलना केवल माँ के प्रेम से की जा सकती है, माँ का प्रेम सन्तान के प्रति बहता रहता है, बना रहता है, कभी मिटता नहीं है. सारे जगत के प्रति जब ऐसी दृष्टि जगती है, वही भक्ति है. नारद मुनि कहते हैं, भावनात्मक या गुणात्मक प्रेम के परे जाकर स्वामी-सेवक भाव से या प्रेयसी-प्रियतम भाव से प्रेम जगे, यही भक्त का प्रयास रहे. ऐसा प्रेम हरेक के भीतर है बस छिप गया है. अपने सम्पूर्ण अस्तित्त्व से इस प्रेम को अभिव्यक्त करना है.
सार्थक विचार।
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