नारद भक्ति सूत्रों के अनुसार पराशर मुनि कहते हैं, पूजा में अनुराग होना ही भक्ति है. शांडिल्य के अनुसार किसी भी प्रकार के विरोध के बिना अपने भीतर स्थित हो जाना ही भक्ति है. भीतर द्वंद्व हो तो भक्ति संभव नहीं है. एक अन्य आचार्य के अनुसार आत्मा में जब रति होती है तो भीतर जो मस्ती होती है वह भक्ति है. नारद के अनुसार सभी आचरणों को उसे समर्पित कर देना ही भक्ति है. दूसरे के व्यवहार को लेकर उन्हें समझाना भी हो तो भीतर क्रोध या ग्लानि नहीं होनी चाहिए. स्वयं के दोष देखकर भी आत्मग्लानि न हो तभी भक्ति टिक सकती है. कर्म करने से पहले विश्राम तथा कार्य करने के बाद समर्पण कर देना चाहिए. अच्छा करने का अभिमान होता है, इसलिए सभी कुछ समर्पण कर देना चाहिए. हम जब भी व्याकुल होते हैं तो जान लेना चाहिए कि हम उसे भूल गए. प्रेम और आदर जहाँ दोनों हों वहीं भक्ति पनपती है. स्वयं के प्रति या अन्य के प्रति आदर न हो तो प्रेम धीरे-धीरे सूख जाता है, व्यक्ति के भीतर आत्मग्लानि का जन्म होता है. प्रेम एक ऊर्जा है, आत्मसम्मान से भरा व्यक्ति ही सम्मान करना जानता है. सम्मान पाने की लालसा जब तक भीतर है प्रेम का प्रस्फुरण नहीं होता. जहाँ दिखावा है वहाँ निकटता द्वेष को जन्म देती है. प्रेम देने की कला है, पूर्णरूप से निछावर होना भक्ति का लक्षण है.
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ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-06-2020) को "वक़्त बदलेगा" (चर्चा अंक-3728) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteसार्थक विवेचन .
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