आज गुरूजी ने बताया भक्ति मन में जगे इसके लिए शरणागति एक साधन है. यदि कोई भूल हमसे होती है और उसे हम स्वीकार लेते हैं, तो उससे बाहर आ जाते हैं. जो झुकना नहीं जानता वह आनंद के सागर में डुबकी नहीं लगा सकता. असहाय के लिए ही भगवान सहायक बन कर आते हैं, दीन के लिए ही दीनानाथ है, जो स्वयं को सदा सही मानता है, अपनी भूल स्वीकार करने में जिसका अहंकार आड़े आता है, वह अपने भीतर विश्राम नहीं कर सकता. गुरु के बिना यह ज्ञान नहीं मिलता और ईश्वर की कृपा के बिना गुरु का सान्निध्य नहीं मिलता. गुरु के सान्निध्य का अर्थ है उनके ज्ञान को स्वीकारना, अपनी बुद्धि को किनारे रखकर श्रद्धा भाव से स्वयं के जीवन में परिवर्तन के लिए सदा तैयार रहना. मन को मारकर बैठना ही गुरु की संगति में बैठना है. जो भी हम अपने प्रयत्न से प्राप्त करते हैं वह हमसे छोटा ही होता है, पर जो गुरु अथवा ईश्वर की कृपा से मिलता है वह असीम है. उस असीम को भीतर समाने के लिए हमारा छोटा सा मन पर्याप्त नहीं है. एक लोटे में भला सागर समा सकता है क्या ? साधक को गुरु के रक्षा कवच में रहना है. अपने हर आग्रह को छोड़ना है. जीवन में कितने ही कठोर अनुभव करवा के परमात्मा हमारी श्रद्धा को हिलाते हैं, पर जो हर संशय को पार करके भी अटल रहती है ऐसी दृढ श्रद्धा ही वास्तविक है. ऐसी श्रद्धा जगते ही हृदय द्रवीभूत हो जाता है, अहंकार पिघल जाता है और हमारे व्यक्त्तिव में एक लोचपन आता है जो किसी भी परिस्थिति में हमें स्थिर बनाये रखता है.
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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