भक्ति शास्त्र को सुनना ही नहीं है, उस पर मनन भी करना है. सारा संसार ही भक्ति शास्त्र है. भक्त को हर जगह परमात्मा के दर्शन होते हैं. सुख-दुःख, इच्छा, हानि-लाभ से परे जाकर ही भक्ति की साधना हो सकती है. लाभ और लोभ जुड़वां हैं, इन्हें मन में घर नहीं बनाने देना है. इसी तरह मान की भी चिंता छोड़ देनी होगी. संसार में आलोचना से घबराने वाले लोग रोग से घबराने वालों से भी ज्यादा हैं. जब समर्पण भाव जगता है तब जीवन का दरिया बहने लगता है, नहीं तो जीवन एक पानी का रुक हुआ डबरा बन जाता है, जिसमें काई जमने लगती है. ज्ञानी का लक्ष्य भी अटल भक्ति है. यह सब करने के बाद काल की प्रतीक्षा करनी है. प्रतीक्षा में एक शक्ति है जो सारे विकारों को दूर कर देती है. ऐसी प्रतीक्षा ध्यान में बदल जाती है. प्रतीक्षा की क्षमता नहीं है तो काल बेचैन कर देता है, उदास बना देता है. काल की प्रतीक्षा करते हुए भी एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना है. अहिंसा, शौच, सत्य, आस्तिकता आदि सदाचारों का पालन करना है. योगी संसार के त्याग की बात करता है अपर भक्त हर भाव में उन्हीं को देखता है. प्रकृति में ईश्वर को देखना भक्ति है.
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