जीवन वही सार्थक है जिसमें रस है. शास्त्र कहते हैं परमात्मा रसपूर्ण है, इस रस की जिसे एक झलक भी मिल जाती है उसके भीतर इसे पाने की लालसा जग जाती है. परमात्मा के प्रति यह लगन ही जीवन में रस उत्पन्न करती है. नारद मुनि कहते हैं, योग, कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि में भक्ति मुख्य है, क्योंकि शेष सबका लक्ष्य भी भक्ति ही तो है. भक्ति जीवन में पूर्णता का अनुभव कराती है. समपर्ण की घड़ी जब जीवन में आती है तो जीवन रसपूर्ण प्रतीत होता है. ज्ञान का उद्देश्य है भक्ति और कर्म की सफलता है भक्ति. योग की पराकाष्ठा है भक्ति. भक्ति में प्रेम और विरह दोनों का अनुभव जरूरी है. प्रेम ही जीवन का आधार है, लक्ष्य भी और गति भी, विरह जगे तो अभिमान टिक नहीं सकता. भगवान को अभिमानी जरा भी नहीं भाते. जो भक्ति में झुकता है उसे कभी लज्जित होकर झुकना नहीं पड़ता.
जीवन की सुन्दर परिभाषा दी है आपने।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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