आज से गुरूजी ने 'नारद भक्ति सूत्र' पर बोलना आरंभ किया है. उन्होंने कहा, जब जीवन में उत्कृष्टता की चाह जगती है, तब भक्ति के प्रति जिज्ञासा मन में जगती है. जिनके जीवन में भक्ति रस प्रकट हुआ है वही भक्ति के बारे में बता सकता है. नारद कहते हैं, भक्ति प्रेम स्वरूपा है, प्रेम के बिना इस जगत में कोई रह नहीं सकता. प्रेम से ही सब कुछ प्रकट होता है पर प्रेम विकारों के बिना नहीं मिलता. भक्ति वह प्रेम है जो अविकारी है, वह अमृतस्वरूप है. प्रेम का लक्षण है शाश्वतता का अनुभव होना. ईश्वर को प्रेम करना भक्ति का प्रथम लक्षण है, जो दिखता नहीं उस अदृश्य से प्रेम करने पर तृप्ति का अनुभव होता है. समय की अनुभूति जब होती है तब हम अमरता का अनुभव नहीं करते. ईश्वर के प्रति प्रेम जगते ही भीतर एक शांत, प्रसन्न चेतना जगती है. भक्त के जीवन में द्वेष नहीं रहता, शोक नहीं रहता. ज्ञान मन के विकारों को दूर करता है पर ज्ञान के ऊपर है भक्ति. ज्ञान हमें पूर्णता का अनुभव नहीं कराता. भक्त अपने भीतर एक मस्ती का अनुभव करता है, स्तब्धता का अनुभव करता है. ज्ञान का उदय होता है और क्षय होता है पर भक्ति कभी कम नहीं होती जो नित वृद्धि को प्राप्त होती है. भक्त के हृदय में कोई कामना नहीं रहती, जिसकी सब कामनाएं नष्ट हो गयी हैं वही भक्ति को अनुभव कर सकता है.
सार्थक प्रवचन।
ReplyDeleteस्वागत व् आभार !
ReplyDeleteस्थितिप्रज्ञता यही है कदाचित | सुंदर विचारपरक आलेख |
ReplyDeleteस्वागत व आभार!
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