Tuesday, June 2, 2020

चेतन अंश जीव अविनाशी

नारद भक्ति सूत्र प्रवचन श्रृंखला का आज दूसरा दिन है. नारद मुनि कहते हैं हृदय में कामना रखकर सामाजिक और धार्मिक कार्यों में लगा हुआ व्यक्ति भक्ति का अधिकारी नहीं है. व्यक्ति को  परमात्मा से अपने सहज संबंध को स्मरण मात्र करना है, केवल उसके प्रति सजग होना है. यदि हमारे धार्मिक कृत्य कुछ न कुछ पाने की आशा से किये जाते हैं तो हम उस परम् रस के अधिकारी कैसे हो सकते हैं. यह सही है कि हमें कुछ न कुछ कर्म करना ही है, कर्म यदि इस भाव से किये जाते हैं कि उनसे हमारा मन शुद्ध होगा और किसी का कल्याण होगा तब एक दिन हम भक्ति के अधिकारी बन सकते हैं. साथ ही यह भी सत्य है कि यह सिद्धि समय सापेक्ष नहीं है, यदि इसी क्षण हम अपनी कामनाओं को छोड़ सकें तो इसी समय परम् रस का अनुभव कर सकते हैं. भक्ति का एक और लक्षण है अनन्यभाव, जब हम परमात्मा से प्रेम करते हैं और उसे स्वयं से भिन्न नहीं मानते तो अनन्य भाव का अनुभव होता है. 

2 comments:

  1. मन का शुद्ध होना ही भक्ति का सर्वोपरी लक्षण है | स्वार्थ भक्ति के परम रस से कहीं दूर ले जाता है | सुंदर विचार |

    ReplyDelete