Tuesday, June 9, 2020

सबसे ऊँची प्रेम सगाई

भक्ति सूत्रों पर व्याख्या करते हुए सद्गुरु आगे कहते हैं - जगत को देखने का नजरिया सबका अलग-अलग है. एक वैज्ञानिक जगत को देखकर विश्लेषण करता है, वह चाँद को देखता है तो उसके बारे में जानने का प्रयत्न करता है. भक्त, कवि या कलाकार चाँद को देखकर किसी अनोखी भावदशा का अनुभव कर सकता है, वह जगत को संयुक्त देखता है, उससे संबंध  बना लेता है. कुछ लोग मूर्ति पूजा को नहीं मानते, वे कहते हैं स्तुति, प्रार्थना, अर्चना उसकी करो जो हर जगह है, पर कुछ के लिए मूर्ति झुकने के लिए एक आधार बनती है. भक्ति, योग व ज्ञान दोनों के लिए आवश्यक है. नारद पहले ही कह चुके हैं भक्ति प्रेमस्वरूपा है, प्रेम मात्र भावना नहीं है यह मानव का अस्तित्त्व है, प्रेम से ही वह बना है. योग से भावना में स्थिरता आती है, ज्ञान से अंतर निर्मल होता है. योगियों का लक्ष्य समाधि है, पर भक्त के लिए समाधि का अनुभव कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है. भीतर जब चेतना खिल जाती है तो भाव समाधि का सहज ही अनुभव होता है. भक्ति में श्रेष्ठ के वरण की कामना है. इसलिए साधक को कुसंग त्यागना है. अहंकार को मिटाना है. ‘मैं’ और ‘मेरा’ के पत्थर पैरों में बाँध कर पर्वतों की चढ़ाई नहीं की जा सकती. उसे तीनों गुणों के पार जाना है. भगवान को जो कुछ भी कोई प्रेम से देता है वह उसे स्वीकारते हैं. वह जानते हैं कि कोई किसी के काम आ जाए तो उसका आत्मसम्मान बढ़ता है. सृष्टि का यह आयोजन तो अनंत काल से चल रहा है, उसमें हमारा छोटा सा यह जीवन क्या अर्थ रखता है. पर यही प्रेम का भेद है ! प्रेम का आदान-प्रदान ही इसे सार्थक बनाता है. 

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