विचारों से कर्म, कर्म से आदत, आदत से चरित्र और चरित्र से भाग्य का निर्माण होता है. इसका अर्थ हुआ हमारे भाग्य के निर्माता हमारे विचार हैं. जैसा विचार मन में होगा वैसा ही भाग्य निर्मित होगा. अब देखने वाली बात यह है कि कोई सकारात्मक विचारों को प्रमुखता देता है और कोई नकारात्मक बातों को, ऐसा क्यों होता है. यह भी तो विचार का ही फल है, जो अच्छी पुस्तके पढ़ेगा, शास्त्रों का अध्ययन करेगा, सन्तों, महापुरुषों की वाणी पढ़े, सुनेगा उसके भीतर वैसे ही विचार आएंगे. जो केवल अपने ही मन की सुनेगा वह नकारात्मकता का शिकार हो सकता है, क्योंकि मन का यह स्वभाव है वह नकार को जल्दी पकड़ लेता है, मन पानी की तरह है नीचे बहना उसके लिए सरल है, यदि उसे ऊपर ले जाना है तो भाप बनाना पड़ेगा, जो तप से ही होगा. इसीलिए शास्त्रों में तप की महत्ता गायी गयी है. जीवन में अनुशासन हो तो वही तप है. वाणी पर संयम हो तो वह वाणी का तप है. तप से ही मन स्वभाव को बदल कर ऊँचा उठने लगता है, उसे अग्नि का साथ मिल जाता है, अग्नि सदा ऊपर ही उठती है.
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