Wednesday, June 24, 2020

मन ही देवता मन ही ईश्वर

श्री अवधेशानंद जी मन का वर्णन करते हुए कहते हैं, मन सौंदर्य चाहता है, मन में स्त्रैण और पुरुषत्व दोनों के अंश हैं. मन कभी समर्पण करता है कभी अधिकार जताता है. जहाँ एक मन हो वहाँ आत्मा है. मन की गहराई में एकत्व है जिसकी सबको तलाश है. मन को रूप, रंग, स्पर्श, गन्ध तथा स्वाद का आकर्षण है, वह सदा किसी न किसी इन्द्रिय के साथ संयुक्त रहता है. नींद में भी स्वप्न का सृजन कर लेता है. स्मृति के द्वारा भी उन वस्तुओं का भोग करता है  जो वर्षों पहले मिली थीं. वह अतीत के स्मरण के बिना स्वयं को अधूरा समझता है, भविष्य की कल्पना द्वारा स्वयं को तृप्त करना चाहता है. वर्तमान के क्षण में उसका अस्तित्त्व नहीं रहता, वह अपने स्रोत में मिल जाता है. यदि उन क्षणों को ध्यान के द्वारा बढ़ा दिया जाये तो आत्मा मन का उपयोग करने लगती है. जब जहाँ जरूरत हो वह चिंतन करती है. मन चिंता करता है. जब जरूरत न हो वह स्वयं में विश्राम करती है तथा सहज ही आनंद का अनुभव करती है. 

2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3743 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

    ReplyDelete
  2. बहुत बहुत आभार !

    ReplyDelete