संत कहते हैं दिव्यता मानव का स्वभाव है. जीवनी शक्ति दिव्य है, पंच तत्व दिव्य हैं तो फिर उनसे सृजित यह मानव भला दिव्य क्यों नहीं होगा. वैज्ञानिक भी कहते हैं यह सारा विश्व तरंगित है, एक ही ऊर्जा है जो विभिन्न प्रकार से व्यक्त हो रही है. इसका अर्थ हुआ उस परम की चेतन शक्ति ने स्वयं को व्यक्त करने के लिए अनेक नाम और रूप धारण किये हैं. इस जगत का जो भी मूल है वह शक्ति के माध्यम से प्रकट हो रहा है यह बात जब पहले-पहल किसी ऋषि ने जानी होगी, तभी उसे अपनी दिव्यता का अनुभव हुआ होगा. ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा साधक अपनी उसी दिव्य चेतना से जुड़ सकता है और जगत में रहते हुए भी जगत उसे प्रभावित नहीं कर पाता। जैसे अग्नि की दाहिका शक्ति से अग्नि को कोई हानि नहीं पहुँचती, इसी तरह चैतन्य को उसकी शक्ति प्रभावित नहीं कर सकती. साधना का लक्ष्य उस शक्ति को जगाना है, उसे जानकर ही उसके पर जाया जा सकता है.
सुन्दर।
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