अद्वैत के ग्रन्थों में रज्जु और सर्प का उदाहरण दिया जाता है. अँधेरे में हम रस्सी को सांप समझ लेते हैं और व्यर्थ ही भयभीत हो जाते हैं. प्रकाश होने पर जब ज्ञान होता है तो खुद पर ही हँसी आती है. इसी तरह चमकती हुई सीपी को देखकर चाँदी का व पीतल में स्वर्ण का भ्रम भी हो सकता है. जीवन में हम मोह को प्रेम समझ लेते हैं. मोह से होने वाले दुःख को अनुभव करते हैं तब लगता है प्रेम दुखदायी है, जब ज्ञान होता है तभी समझ में आता है यह प्रेम था ही नहीं. प्रेम तो एक विशुद्ध भावना है, इसमें समर्पण है, हम अन्यों पर अधिकार चाहते हैं और उन्हें झुकाना चाहते हैं. देह, मन, बुद्धि को आत्मा समझ लेते हैं और इनके रोगी होने या मिटने पर दुखी होते हैं, जबकि शाश्वत तो केवल आत्मा है, देह तो मरणशील है ही. धीरे-धीरे अद्वैत का सिद्धांत हमें इस सत्य की ओर ले जाता है कि जिसे हम जगत समझ रहे हैं वह परमात्मा ही है. परमात्मा सत्य, अनंत, ज्ञान और परम है, यह सृष्टि भी अनादि काल से है. परमात्मा को हम अनुभव कर सकते हैं, उसे पा नहीं सकते वह कभी भी वस्तु बनकर हमें नहीं मिल सकता, वैसे ही यह जगत कभी पकड़ में नहीं आता. न वस्तु शाश्वत है, न पकड़ने वाला ही. यह उस बाजार की तरह है जिसमें से हमें इसकी शोभा देखते हुए गुजर भर जाना है.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (13-09-2020) को "सफ़ेदपोशों के नाम बंद लिफ़ाफ़े में क्यों" (चर्चा अंक-3823) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
बहुत बहुत आभार !
Deleteस्वागत व आभार !
ReplyDelete