मन द्वंद्व का ही दूसरा नाम है. यह जगत ही दो से बना है और मन भी इसी जगत का हिस्सा है. यहाँ सुख के साथ दुःख है और दिन के साथ रात है. हम दिन को भी स्वीकारते हैं और रात को भी. किन्तु सुख के साथ दुःख को नहीं स्वीकारते. दिन और रात को हम बाहर की घटना मानते हैं और सुख-दुःख को मन के भीतर की, बाहर पर हमारा कोई बस नहीं वह प्रकृति से संचालित है पर हमें लगता है भीतर पर हमारा बस चल सकता है. हम दुःख को अस्वीकारते हैं और इसी कारण कभी भी उससे छुटकारा नहीं मिल पाता। यदि दुःख को भी सहजता से स्वीकार लें तो वह टिकने वाला नहीं है. उससे बचने की प्रक्रिया में हम उसकी अवधि को बढ़ा देते हैं और उसकी तीव्रता को भी. इसी तरह मन में प्रेम भी है और क्रोध भी, हम प्रेम को अच्छा मानते हैं और क्रोध से छुटकारा पाना चाहते हैं. क्रोध को दबाते हैं या क्रोध आने पर स्वयं को दोषी मान लेते हैं. मन की जिस शक्ति से हम क्रोध को दबाते हैं और जिस विचार के द्वारा मन को क्रोध न करने के लिए समझाते हैं या आत्मग्लानि से भर जाते हैं, वह भी तो उसी मन का हिस्सा है जो क्रोध को उत्पन्न कर रहा है. यह तो ऐसी ही बात हो गयी जैसे कोई अपने दाएं हाथ को बाएं हाथ से रोके. जब तक भीतर यह समझ नहीं जागती कि सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही भावनाएं एक ही शक्ति से उपजती हैं, हम उनके पार नहीं जा सकते. ध्यान के द्वारा यही समझ विकसित होती है, शक्ति की आराधना से भी हम उस शक्ति का अनुभव कर लेते हैं और फिर जो भावना जब जगाना चाहें ,जगा सकते हैं.
सुन्दर
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteसंक्षिप्त और सुंदर रचना गागर में सागर सुंदरम मनोहरम
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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