नवम्बर २००९
हमारी मूर्छा
इतनी सघन है कि हमें पता ही नहीं चलता हमारे भीतर आनंद का एक ऐसा स्रोत है जो अनंत
है. हमारी अंतरात्मा पर कर्म का पर्दा पड़ा है, हमारे दुखों का कारण कर्म ही हैं,
मनसा, वाचा और कर्मणा जो भी हमने किया है वही सामने आता है. दिन भर में न जाने
कितने विचार हमरे मनों में आते हैं, भीतर कर्म का एक व्यक्तित्व है, हमारे स्वभाव
को बनाने वाली सत्ता भीतर ही तो है, जब तक उसकी निर्जरा नहीं होगी तब तक स्वभाव
नहीं बदलेगा और हम वही-वही दोहराते चले जायेंगे.
बहुत सारगर्भित और सटीक चिंतन...आभार
ReplyDeleteस्वागत व आभार कैलाश जी
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