Thursday, June 11, 2015

जरा जाग कर जो देखेगा

नवम्बर २००९ 
हमारी मूर्छा इतनी सघन है कि हमें पता ही नहीं चलता हमारे भीतर आनंद का एक ऐसा स्रोत है जो अनंत है. हमारी अंतरात्मा पर कर्म का पर्दा पड़ा है, हमारे दुखों का कारण कर्म ही हैं, मनसा, वाचा और कर्मणा जो भी हमने किया है वही सामने आता है. दिन भर में न जाने कितने विचार हमरे मनों में आते हैं, भीतर कर्म का एक व्यक्तित्व है, हमारे स्वभाव को बनाने वाली सत्ता भीतर ही तो है, जब तक उसकी निर्जरा नहीं होगी तब तक स्वभाव नहीं बदलेगा और हम वही-वही दोहराते चले जायेंगे. 

2 comments:

  1. बहुत सारगर्भित और सटीक चिंतन...आभार

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  2. स्वागत व आभार कैलाश जी

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