अप्रैल २००४
अस्तित्त्व ने
हमें जीवन का अमूल्य उपहार दिया है, यह सुंदर प्रकृति उसी की अध्यक्षता में काम
करती है, बदले में हम प्रभु को क्या दे सकते हैं? इतना ही की उसके इस सुंदर विश्व
को कुरूप न बनाएँ, बल्कि और सुंदर बनाएँ, अपने आसपास सौंदर्य बिखराएँ, मन का
सौंदर्य भी और भौतिक सौंदर्य भी, सभी अन्ततः भीतर से ही उपजता है, इस जगत में सभी
कुछ उस परम के प्रकाश से ही उपजा है. वह हर पल हमारी खबर रखता है, हमें उसकी खबर
नहीं रहती जब मन संसार में उलझा होता है. चित्त जब खाली होता है, तभी उसको जानने
की प्यास भीतर जगती है. चित्त की शुद्धि के लिए साधना की तत्परता भी चाहिए और
समर्पण भी. सृजन की क्षमता का विकास होता है जब मन एकाग्र हो, बिखरा हुआ मन स्वयं
भी अतृप्त रहता है और दूसरों को भी अतृप्त बनाता है. मन जब उस विराट के चरणों में
झुका होता है तो उसके कुछ गुण तो इसके भीतर आएंगे ही और वह प्रभु तो मानो इसी की
प्रतीक्षा कर रहा है, वह हमारी और प्रेम भरी नजरों से निहार रहा है, उसको जानने का
छोटा सा प्रयास भी विफल नहीं जाता.
आज आपने बहुत सुंदर बात लिखी है अनीता जी ...मन खुश हो गया ....!!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर |आभार ॰
आभार, अनुपमा जी..
Deleteवाह बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteइमरान, स्वागत है..
Deleteयह जग सुन्दर हो जाए ....बांचे तो जरा डायरी के पन्ने ....
ReplyDeleteवीरू भाई, अच्छा लगा आपका कमेन्ट..
Deleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि कि चर्चा कल मंगल वार 19/2/13 को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका हार्दिक स्वागत है
ReplyDeleteराजेश जी, डायरी के पन्नों को चर्चा मंच तक पहुँचाने के लिए आभार !
Deleteचित्त की शुद्धि के लिए साधना की तत्परता भी चाहिए और समर्पण भी
ReplyDeleteएक सत्य
रमाकांत जी, स्वागत व आभार !
Deletesunder aabhaas
ReplyDeleteगुज़ारिश : !!..'बचपन सुरक्षा' एवं 'नारी उत्थान' ..!!