मार्च २००४
ईश्वर निर्विरोध सत् है, इस जगत
में दिखाई पड़ने वाली वस्तुएं किसी न किसी का विरोध करती हैं. जो ‘यह’ है वह ‘वह’
नहीं है, कपड़ा, लकड़ी नहीं है, किताब, कलम नहीं है, पर ईश्वर का किसी से विरोध नहीं,
वह ‘यह’ भी है और ‘वह’ भी. प्रेम, घृणा नहीं है, लोभ, उदारता नहीं है, पर ईश्वर एक
साथ दयालु और न्यायकारी है. कोमल और कठोर है. वह सारे द्वन्द्वों से अतीत है, पर उसमें
कुछ भी होने का अभिमान नहीं है, चैतन्य निरहंकार है, इसीलिए ऐसा भी कह सकते हैं कि
वह न ‘यह’ है न ‘वह’ है. वह जहाँ है वहाँ भले-बुरे में भी कोई भेद नहीं रह जाता,
वहाँ बस चीजें होती हैं, जो जैसा है बस वैसा ही. साधक का लक्ष्य उसी दृष्टि को
पाना है, जहाँ अद्वैत है, केवल उसी पल में मन निर्विचार हो जाता है, निर्द्वन्द्व
हो पाता है. एक आह्लादपूर्ण ज्योति से भर जाता है, संशय गिर जाते हैं. तब कल्याण
करना नहीं पड़ता, जो होता है, वह कल्याणकारी होता है. जीवन सहज उत्सव बन जाता है.
जिसने जीवन के रहस्य को जाना वही सत असत की पहचान बतला पायेगा ..
ReplyDeleteरमाकांत जी, सही कहा है आपने, जीवन के रहस्य को जीना ही उसे जानना है..
Deleteद्वैत का अद्वैत बहुत सुन्दर विचार .
ReplyDeleteआभार, वीरू भाई !
Deleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल रविवार 10-फरवरी-13 को चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है.
ReplyDeleteअरुण जी, आपका बहुत बहुत आभार !
Deleteatyant mahatvpoorn evam gyaan ki anukarniya baaten yahaan mil jaati hain yahaan padhne .....aabhaar!
ReplyDeleteसूर्यकान्त जी, आपका स्वागत है ..
Deleteसत्य वचन!
ReplyDeleteसुंदर विचार
ReplyDeleteसंगीता जी व मनोज जी, आपका स्वागत व आभार !
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