Monday, February 25, 2013

मन का सरवर हिलता जाता


अप्रैल २००४ 
जो दुःख हर ले, वही अध्यात्म है, परिस्थितियां कैसी भी हों, हम उनके द्वारा प्रभावित न हों, प्रभावित तभी होते हैं, जब स्वयं को अस्तित्व से पृथक मानते हैं. अस्तित्व को कोई सुख-दुःख नहीं व्यापता, वह पूर्ण मुक्त है और साक्षी है. जब हम भी मन को साक्षी भाव से देखने लगते हैं, तो वह भी अपना स्वभाव छोड़ने लगता है, शांत होने लगता है. मन को देखना आ जाये तो उसका निग्रह करना आसान है. इन्द्रियां प्रत्यक्ष रूप से विषयों के सम्पर्क में आती जरूर हैं, पर उन्हें कहता तो मन ही है. आँख यदि कुछ असुंदर देखती है तो उसका दुख मन ही अनुभव करता है, और यदि मन भी सो जाये तो हमें उसका पता ही नहीं चलता. हमें इसी अमनी भाव में आना है. अहंकार की जड़ भी यह मन है, और दुःख तथा अहंकार का कारण भी यह मन है, जो अस्थिर होकर ज्ञान को टिकने से रोकता है. यदि दूध में जामन डाल दें और निरंतर उसे हिलाते रहें तो दही नहीं जमेगा. मन स्थिर होगा तभी अस्तित्व उसके दर्पण में झलकेगा.

3 comments:

  1. नम को संयत करना बहुत मुश्किल काम है ...
    बहुत ही अच्छी बात लिखी है ...

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  2. मन स्थिर होगा तभी अस्तित्व उसके दर्पण में झलकेगा. ,,

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  3. दिगम्बर जी, व धीरेन्द्र जी आपका स्वागत व हार्दिक आभार !

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