जीवन एक अनवरत बहती धारा की तरह एक चक्र में प्रवाहित हो रहा है. सागर में मिलने
की लालसा लिए नदी दौड़ती जाती है पर वायु उसे आकाश को लौटा देता है, बादलों के रूप
में बरसती है तो फिर नदी बनकर एक यात्रा पर निकल जाती है. सागर में खुद को खोकर
बादलों के द्वारा पुनः खुद को पाना क्या यही नदी का लक्ष्य नहीं है. मन रूपी धारा
भी आत्मा के सागर में लौटना चाहती है,
सुख-दुःख के दो किनारों के मध्य से बहती हुई स्वयं तक लौटने की उसकी यात्रा ही तो
जीवन है. कोई स्वयं तक पहुँच भी जाता है तो किसी न किसी कामना की वायु उसे पुनः एक
नयी यात्रा पर ले जाती है. इस तरह न जाने कितने ही जन्मों में मानव ने संतों के
चरणों में बैठकर आत्मअनुभव किया होगा, किंतु इस धरती का आकर्षण उसे हर बार मुक्ति
के द्वार से यहीं लौटा लाया होगा. आत्मा में स्वयं को खोकर जगत में खुद को पाने की
यात्रा क्या यही तो जीवन का रहस्य नहीं है ?
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-07-2019) को "आशियाना चाहिए" (चर्चा अंक- 3404) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार !
Deleteआध्यात्मिक चिंतन।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteबहुत सुंदर लेख। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteiwillrocknow.com
स्वागत व आभार !
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