मन द्वंद्व का ही दूसरा नाम है। देह जड़ है, वह जैसी है वैसी ही प्रतीत भी होती है। देह स्वयं को स्वस्थ रखने का उपाय भी जानती है यदि हम उसे उसकी सहज, स्वाभाविक स्थिति में रहने दें। किंतु मन में लोभ है, जो अनावश्यक पदार्थों से तन को भरने पर विवश करता है। क्रोध में हानिकारक रसायनों को तन में छोड़ता है। योग, व्यायाम व प्राणायाम के द्वारा तन व मन दोनों को स्वस्थ किया जा सकता है पर मन इसे भी अभिमान का विषय बना लेता है। हम आत्मा के आकाश में उड़ना तो चाहते हैं पर विकारों की ज़ंजीरें पैरों में बांधे रहते हैं, यह दोहरापन ही द्वंद्व है जो मानव को चैन से नहीं रहने देता। लगता है वह दोनों पाँव धरा में धँसाए है और दोनों हाथ ऊपर उठकर परमात्मा को पुकारता है। जब तक वह अपनी पकड़ नहीं छोड़ता परमात्मा का सान्निध्य मिले भी तो कैसे ? मन के गहरे गह्वर को रूखा-सूखा दर्शन नहीं भर पाता, इसे तो केवल भक्ति के रस ही भरा जा सकता है. ईश्वर के प्रति अटूट, एकांतिक प्रेम ही हमारे मन को विश्राम देता है और रस की ऐसी धार बहाता है, जो उत्साह और उमंग के फूल खिलाती है. जीवन में उत्साह हो, सृजन की क्षमता हो, अनंत आनंद हो, बेशर्त प्रेम हो और कृतज्ञता हो तो तृप्ति की वर्षा होती ही है. परमात्मा के प्रति प्रेम एक निधि है. भक्ति योग से बढ़कर कुछ नहीं.
वाह क्या बात है। उत्तम भाव अभिव्यक्ति
ReplyDeleteस्वागत व आभार ओंकार जी!
Deleteस्वागत व आभार कविता जी!
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