अगस्त २००५
सेवा
स्नेहवश होती है, वहाँ स्वयं के लिए कुछ नहीं चाहिए, चाहिये तो केवल सेव्य की
प्रसन्नता, सेवक यदि अपना सुख चाहे, अपनी रूचि को सेव्य पर लादे तो वह अपनी ही
सेवा कर रहा है. हनुमान सेवक हैं, उनके प्रेम की धारा सदा आराध्य की ओर बहती है. वह
राम की सेवा के अवसर खोजते हैं. हम लोग अपनी सुविधा देखकर सेवा करते हैं, तभी उसका
फल नहीं मिलता. सच्ची सेवा करने से अन्तःकर्ण की शुद्ध होती है, अहंकार गलता है.
सेवा हमें प्रभु के पास ले जा सकती है.
सच में निस्वार्थ सेवा ही हमें प्रभु के नज़दीक लेजाती है...बहुत सार्थक चिंतन..आभार
ReplyDeleteबहुत सार्थक बात कही अनीता जी आज ....!!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और उत्कृष्ट प्रस्तुति, धन्यबाद .
ReplyDeleteनिस्वार्थ भाव से सेवा करना भी साधना है ..!
ReplyDeleteRECENT POST -: पिता
"परहित सरिस धरम नहिं भाई --।"
ReplyDeleteतुलसीदास
कैलाश जी, अनुपमा जी, राजेन्द्र जी, धीरेन्द्र जी तथा शकुंतला जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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