“शरीरं दृश्यम” जिस
तरह प्रकृति दृश्य है उसी तरह देह तथा मन भी साधक के लिए दृश्य हो जाता है. शरीर,
मन, विचारों तथा भावनाओं से परे वह भीतर साक्षी रूप का अनुभव करता है अथवा तो यह
सारा दृश्य ही हमारा शरीर है, हम सर्व व्यापक हैं, हवा, पानी और धूप हमारे ही अंग
हैं. सीमित होते हुए भी हम असीमित हैं. भीतर का वायु तत्व बाहर के वायु तत्व से जुड़ा
है. पृथ्वी तत्व अभी पैरों के नीचे है, मृत्यु के बाद ऊपर हो जायेगा. जब यह भाव
जगता है तो कोई भी भेद नहीं रहता, अभेद में ही प्रेम है. पहले उपाय से सबसे पृथक
होकर जो बचता है वह प्रेम है और दूसरे अर्थ में सबसे जुडकर जो मिलता है वह प्रेम
है. यह इतनी पवित्र, सूक्ष्म, और अद्भुत अनुभूति है कि शब्दों की पकड़ में नहीं आती
!
दूसरे अर्थ में सबसे जुडकर जो मिलता है वह प्रेम है. यह इतनी पवित्र, सूक्ष्म, और अद्भुत अनुभूति है कि..........
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने .... सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteयथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ।
ReplyDeleteराहुल जी, सदा जी व शकुंतला जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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