जुलाई २००५
प्रेम
सभी के भीतर लबालब भरा है, भीतर ही भीतर छलकता रहता है, सभी आत्मा रूप में कितने
पावन हैं, निष्पाप, छल-कपट से रहित पर वही आत्मा जब मन के रूप में, विचारों के रूप
में, कर्म के रूप में बाहर आती है तो कितनी बदल जाती है. वह प्रेम जो भीतर सहज है
बाहर आकर कितना असहज हो जाता है. यह क्यों होता है इसका कारण खोजने जाएँ तो एक
मात्र उत्तर मिलता है, अहंकार, बड़े-बड़े अक्षरों में चमकता हुआ अहंकार ! यही वह
कारण है जो हमें असहज बनाता है, जो भीतर के प्रेम को बाहर बिखरने से रोक देता है.
फूल अपनी सुगंध कितनी सहजता से बिखराता है पर हम मानव प्रकृति के सम्मुख कितने
तुच्छ प्रतीत होते हैं, ऊपर से तुर्रा यह कि यह अहंकार हमें इतना प्रिय है कि
परमात्मा की सत्ता को भी नकार देते हैं.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (07.02.2014) को "सर्दी गयी वसंत आया" (चर्चा मंच-1515) पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार राजेन्द्र जी
Deleteसही कहा अनीता जी ...!!
ReplyDeleteअहंकार ऐसा शत्रु है जो कब चुप चाप से आकार छा जाता है पता ही नहीं चलता |जब समझ आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ,तब उसे मिटाने के लियर एक जबदस्त युद्ध करना पड़ता है !!
अनुपमा जी, आपने सही कहा है कि अहंकार ही परम से मिलने में बाधा है पर उससे लड़ना नहीं है उसे भी परमात्मा के चरणों में अर्पित कर देना है.
Deleteये भी बात आपने बहुत अच्छी कही |सच लड़ने से अहंकार कम नहीं होता ....समर्पण से ही होता है ....!!आभार आपका ॥
Deleteबहुत सही कहा.
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