Friday, February 7, 2014

तोरा मन दर्पण कहलाये

जुलाई २००५ 
हमारा मन वास्तव में दर्पण है जो भीतर उठने वाले हर विचार को प्रतिबिम्बित करता है. हमारे अंतः करण का निर्माण प्रतिक्षण होता रहता है, कोई भी घटना जो भीतर घटी हो अथवा बाहर, प्रतिक्रिया जगाती है, यह प्रतिक्रिया राग या द्वेष दोनों में से ही कोई होती है. दोनों ही हमें बांधते हैं, यह जानते हुए भी हम स्वभाव वश प्रतिक्रिया करते हैं, अंतः करण को मैला करते हैं, वही हमारे मन में झलकता है और उसका संस्कार भी भीतर बन जाता है. जो भी घट रहा है उसे साक्षी भाव से देखने पर ही मन शांत रहता है और कोई बीज नहीं पड़ता. जिस व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति के प्रति हम प्रतिक्रिया जगाते हैं अनजाने में हम उसके जैसे होने लगते हैं, अपने पद से नीचे गिर जाते हैं. साधना के पथ पर दो कदम आगे चले नहीं कि तीन कदम पीछे आ गये, तभी तो लक्ष्य दूर ही रहता है. मन में छाई हल्की सी धूमिल रेखा भी साधक को मान्य नहीं, वह प्रतिक्षण सहजावस्था में रहना चाहता है.  

2 comments:

  1. सहज होना ज़रूरी है !!क्रिया और प्रतिकृया हमे साधना से दूर करते हैं ...!!बहुत गहन एवं अच्छी बात कही !!आभार .

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  2. अनुपमा जी, स्वागत व आभार !

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