अगस्त २००५
ईश्वर
की कृपा तो हर काल में हर किसी पर अनवरत बरस रही है, उसका लाभ लेने वाले को ही
साधक कहते हैं. जब जीव स्वयं पर कृपा करता है तभी ईश्वर की कृपा फलीभूत होती है.
मन को ही अहंकार का दुर्ग समझना चाहिए जो उस कृपा का अनुभव नहीं होने देता. मन ही
वह दर्पण है जिसमें चेतना प्रतिबिम्बित होती है. मन यदि मलिन होगा तो चेतना भी
मलिन ही प्रकट होगी, मन यदि बंटा हुआ होगा तो चेतना भी टुकड़ों में दिखेगी. मन का
समाहित होना ही अपने-आप से जुड़ना है. मन को जब यह ज्ञान हो जाता है कि वास्तव में
वह कुछ भी नहीं है, आत्मा की शक्ति ही उसके द्वारा प्रकट हो रही है, तो वह शांत होकर
बैठ जाता है, जैसे चन्दमा के पास अपना प्रकाश नहीं है, वह सूर्य के प्रकाश से ही
प्रकाशित होता है, वैसे ही मन भी आत्मा रूपी सूर्य पर आश्रित है और धरती रूपी शरीर
के चक्कर काट रहा है.
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