Thursday, February 20, 2014

एक चेतना दिप दिप जलती

अगस्त २००५ 
मानव वास्तव में मन से परे एक दिव्य चेतना है. अबदल, अचिंतनीय चेतना जो परमात्मा का अंश है. जहाँ कोई द्वंद्व नहीं है, संकल्प-विकल्प नहीं है, कोई दुःख, कोई नकारात्मकता नहीं है. वह एक ही तत्व है जो सारे संसार में व्याप्त है. ऐसी चेतना के सान्निध्य में जब बुद्धि काम करती है तो जगत के साथ सम्बन्ध आत्मीय हो जाते हैं और उतना ही तीव्र वैराग्य भी भीतर जगता है. आत्मा का जिसे बोध हुआ है वह एकांत में भी प्रसन्न है और भीड़ में भी. वह कालातीत, भावातीत और शुभ-अशुभ से परे है. उसे जगत से कोई स्वार्थ नहीं साधना है. वह एक फूल की तरह हो जाता है, जो बस खिलना चाहता है, खिलना जानता है और अपनी सुगंध बिखेर कर चुपचाप झर जाता है. वह कुछ होना नहीं चाहता वह ‘हो’ गया है.  

4 comments:

  1. कितना सुंदर और सार्थक ...!!

    ReplyDelete
  2. ऐसी चेतना के सान्निध्य में जब बुद्धि काम करती है तो जगत के साथ सम्बन्ध आत्मीय हो जाते हैं और उतना ही तीव्र वैराग्य भी भीतर जगता है. आत्मा का जिसे बोध हुआ है वह एकांत में भी प्रसन्न है और भीड़ में.........

    ReplyDelete
  3. सुन्दर पाठ धारण करने के लिए।

    ReplyDelete