अगस्त २००५
मानव वास्तव
में मन से परे एक दिव्य चेतना है. अबदल, अचिंतनीय चेतना जो परमात्मा का अंश है.
जहाँ कोई द्वंद्व नहीं है, संकल्प-विकल्प नहीं है, कोई दुःख, कोई नकारात्मकता नहीं
है. वह एक ही तत्व है जो सारे संसार में व्याप्त है. ऐसी चेतना के सान्निध्य में
जब बुद्धि काम करती है तो जगत के साथ सम्बन्ध आत्मीय हो जाते हैं और उतना ही तीव्र
वैराग्य भी भीतर जगता है. आत्मा का जिसे बोध हुआ है वह एकांत में भी प्रसन्न है और
भीड़ में भी. वह कालातीत, भावातीत और शुभ-अशुभ से परे है. उसे जगत से कोई स्वार्थ
नहीं साधना है. वह एक फूल की तरह हो जाता है, जो बस खिलना चाहता है, खिलना जानता
है और अपनी सुगंध बिखेर कर चुपचाप झर जाता है. वह कुछ होना नहीं चाहता वह ‘हो’ गया
है.
कितना सुंदर और सार्थक ...!!
ReplyDeleteऐसी चेतना के सान्निध्य में जब बुद्धि काम करती है तो जगत के साथ सम्बन्ध आत्मीय हो जाते हैं और उतना ही तीव्र वैराग्य भी भीतर जगता है. आत्मा का जिसे बोध हुआ है वह एकांत में भी प्रसन्न है और भीड़ में.........
ReplyDeleteसुन्दर पाठ धारण करने के लिए।
ReplyDeleteअहं ब्रह्मास्मि ।
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