Tuesday, February 4, 2014

मन तू ज्योति समान अपना मूल पिछान

जुलाई २००५ 
हमारा जीवन जिन वस्तुओं से महत्वपूर्ण बनता है, उनमें सबसे प्रमुख है प्रेम ! भीतर जब प्रेम भरा रहता है तो बाहर सभी कुछ सरल हो जाता है और प्रेम जब हृदय का वासी बन जाता है तो बाहर एक शांति स्वतः ही प्रकट होती रहती है. हमारा मन तब समाधान पाना सीख लेता है. नम्रता से अहंता को, क्रोध को अक्रोध से, हिंसा को अहिंसा से जीतने की कला सीख लेता है. सार्थक चेष्टा से व्यर्थ अपने आप गिर जाता है, सार्थक चिन्तन से विषाद दूर हो जाता है. जो मन असत्य, परदोष दृष्टि तथा आत्मप्रशंसा को त्याग देता है, उसकी वाणी के दोष भी समाप्त होने लगते हैं. भ्रम दोष, प्रमाद दोष और लिप्सा दोष वाणी के दोष हैं. जिसके बारे में पूर्ण जानकारी न हो, ऐसी वाणी बोलना ही भ्रम दोष है, असजग होकर कहे गये वाक्य भूल से भरे होंगे. लोभ बढ़े तो वाणी का असर नहीं होता. ऐसा मन ही हमें भगवद्प्रेम का अनुभव करा सकता है, आत्मा को प्रकट करने के लिए सहायक हो सकता है. वह अपने मूल को पहचानने लगता है, वह भीतर जाने लगता है. 

5 comments:

  1. गहन सोच और बहुत सुंदर बात .....आत्मसात करने योग्य ...आभार अनीता जी .

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  2. भीतर जितना मुड़े , बाहर उतना जुड़े !

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  3. बहुत सुन्दर प्रवचन अंश।

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  4. बहुत सुंदर विचार ...!
    बसंत पंचमी कि हार्दिक शुभकामनाएँ....
    RECENT POST-: बसंत ने अभी रूप संवारा नहीं है

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  5. अनुपमा जी, वाणी जी, वीरू भाई व धीरेन्द्र जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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