Tuesday, July 1, 2014

पानी बिच मीन प्यासी

अगस्त २००६ 
ध्यान में जो नीरवता भीतर प्रकट होती है, वह अतीव मधुर है. वह शब्दों से परे है. यह जगत भी तभी सुंदर लगता है जब अंतर शांत हो. हमारी चेतना इतनी भव्यता छिपाए है कि उसे शब्दों में कहा ही नहीं जा सकता. यह प्रकृति कितने रूप धर कर हमें लुभाती है. सौन्दर्य जो बाहर है, वह उत्पन्न हुआ है, जो भीतर है वह तो सहज है, स्वनिर्मित है. जब तक कोई इस सौन्दर्य को जान नहीं लेता है तब तक प्रेम को पहचान नहीं पाता. प्रेम का अनुभव किये बिना ही उसे इस जगत से जाना पड़ता है, वह प्यासा ही रह जाता है, जगत से सुख पाने की इच्छा उसे दूसरों का गुलाम बना देती है.

4 comments:

  1. ....जीवन निज घट यात्रा ही तो है .....!!सारगर्भित आलेख ...बहुत सुंदर ....!!

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  2. बहुत सुन्दर व्यक्ति संसार को अपने अंदर देखना रखना चाहता हैं संसार में रहना नहीं चाहता यही द्वंद्व है।

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  3. सच कहा जब तक भीतर आनंद नहीं बाहर भी सब सूना है |

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  4. अनुपमा जी, वीरू भाई तथा इमरान आप सभी का स्वागत व आभार !

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