सितम्बर २००६
मन ग्रन्थि स्वरूप है, जो
विकार हमारे भीतर पड़े हुए हैं, हम उन्हीं विकारों को बाहर से भी अपनी ओर आकर्षित
करते हैं. जब मन की ग्रन्थि हमारे भीतर की उपजाऊ भूमि पाकर फूटती है तो उसमें से
विचार रूपी कोंपले निकलती हैं. जो विचार हमें ज्यादा आते हैं, समझना चाहिए वही
ग्रन्थि काटनी है. ध्यान में हमें यही तो करना है. आते हुए विचारों की साक्षी भाव
से देखना, बिना राग-द्वेष जगाये देखना उस ग्रन्थि से मुक्त करता है. हम जितना-जितना
भीतर से खाली होते जाते हैं वह चैतन्य उतना-उतना उसमें भरता जायेगा. इच्छा जब
घटते-घटते शून्य हो जाएगी तब रास्ता सरल हो जायेगा. इस जगत में इच्छा करने योग्य
एक वही तो है ! पर वह भी तब मिलता है जब उसकी भी इच्छा न रहे..
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