नवम्बर २००६
सजगता
यह सिखाती है कि हम कितने नाटक करते हैं, यह जीवन एक नाटक ही तो है, हम सहज होते
ही कब हैं. सहज होकर जीना जिसको आ गया वह तर गया. सहज समाधि उसकी लग गयी. पर हमें
कई बार विवश होकर नाटक करना पड़ता है, पर जो यह जानता ही नहीं कि वह नाटक कर रहा
है, वह किस अँधेरे में जी रहा है. जो जानता है वह मुक्त है. इस मुक्ति का आनंद
अपरिमित है, कभी-कभी हम नाटक को असलियत समझ बैठते हैं तब फंस जाते हैं, पर द्रष्टा
भाव में आते ही सब नष्ट हो जाता है. कभी जब कोई कुछ न कर रहा हो, बस चुपचाप बैठा
हो, भीतर चल रही हलचल को देखता रहे तो धीरे-धीरे सब शांत हो जाता है, अडोल,
ध्यानस्थ और तब मन में सजगता जगती है.
सहजता ही तो साधुता है । सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteसही कहा है शकुंतला जी, स्वागत व आभार !
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