जनवरी २००७
जिसे
इच्छा होती है, सुख-दुःख का अनुभव होता है, जो द्वेष करता है और सदा कुछ न कुछ
पाने, करने या जानने के लिए प्रयत्नशील है वही मन है. जिसे कुछ पाना नहीं, जानना
नहीं जो द्वेष से मुक्त है और सुख-दुःख से असंग है वही आत्मा है. परमात्मा को अपना
मानकर जब भक्त उनका स्मरण करता है तो वह सदा योग में बना रहता है वह भी असंग रहता
है. ध्यान के द्वारा साधक भी कर्ता भाव से मुक्त हो जाता है. प्रेम या ध्यान दोनों
में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा. किसी भी मार्ग के द्वारा जब मन सजग हो जाता है
तो स्वयं को मुक्त करने का मार्ग उसे मिल जाता है.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (01.08.2014) को "हिन्दी मेरी पहचान " (चर्चा अंक-1692)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार राजेन्द्र जी
Deleteबहुत सुन्दर :न मैं मन हूँ न काया , न सूक्ष्म शरीर। मन को सेल्फ मान लेना भरम है। सुन्दर विचार।
ReplyDeleteDifferent & Great Thought :)
ReplyDeleteस्वागत व आभार वीरू भाई !
ReplyDeleteसुन्दर रचना...
ReplyDeleteविचारणीय---विचार
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