सितम्बर २००६
संतों
की वाणी हमें झकझोर देती है. हमारे भीतर की सुप्त चेतना जो कभी-कभी करवट ले लेती
है, एक दिन तो पूरी तरह से जागेगी. हम कब तक यूँ पिसे-पिसे से जीते रहेंगे, कब तक
अहंकार का रावण हमें भीतर के राम से विलग रखेगा. हमारे जीवन में विजयादशमी कब
घटेगी. वे कहते हैं, हम जगें, प्रेम से भरें, आनन्द से महकें. हम जो राजा के पुत्र
होते हुए कंगालों का सा जीवन बिता रहे हैं. सूरज बनना है तो जलना भी सीखना पड़ेगा.
अब और देर नहीं, न जाने कब जीवन की शाम आ जाये, कब वह घड़ी आ जाये जब उससे मिलना
हो, तब हम उसे क्या मुँह दिखायेंगे? ऐसा कहकर सन्त हमें बार-बार चेताते हैं.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (18.07.2014) को "सावन आया धूल उड़ाता " (चर्चा अंक-1678)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार राजेन्द्र जी
ReplyDeleteमगर आज स्वतन्त्र भारत में सन्तों की वाणी की अवहेलना हो रही है।
ReplyDeleteईश्वर सुबुद्धि दे।