अक्तूबर २००६
देह बनी रहे इसके लिए भोजन
चाहिए, क्षुधा आवश्यक है, पर कामना अनावश्यक है. क्षुधा मिट जाये तो संतोष होता है
पर कामना मिटने से भी संतोष नहीं होता, क्योंकि मन अगले ही पल नई कामना गढ़ लेता
है. मन जब तक अपने मूल को नहीं जान लेता वह ऐसा करता ही रहेगा. आत्मा को छोड़कर
यहाँ सभी कुछ अस्थायी है. जो इस बात को जानकर मन में उठने वाली विचारों को सागर
में उठने वाली लहरों की तरह साक्षी भाव से देखता है तो कामनाओं से मुक्त हो जाता
है. वह इस जगत से अछूता ही निकल जाता है, मृत्यु भी इस मुक्तता को छीन नहीं सकती.
सत्य वचन,सादर आभार।
ReplyDeleteबाँवरा मन ऐसा ही तो है ...
ReplyDeleteराजेन्द्र जी व प्रतिभा जी, स्वागत व आभार !
ReplyDelete" मरने से यह जग डरा मेरो मन आनन्द ।
ReplyDeleteकब मरिहौं कब भेटिहौं पूरण परमानन्द ॥"
कबीर