सितम्बर २००६
‘आनंद को जीओ’, ओशो ने कहा है. हम जीवन
को इतना गम्भीर बना देते हैं कि मुस्कुराना भी छोड़ देते हैं. जब हम प्रेम से ईश्वर
का नाम लेते हैं तो भीतर की सरंचना बदल जाती है और आनंद का स्रोत जो भीतर बंद पड़ा
था, खुल जाता है. जो भीतर बैठा है वह जग जाता है, वह तो सदा जगा ही है, हम ही उसके
प्रति सजग नहीं थे. आत्मा रूपी आनंद भीतर है पर मन अहंकार की चादर ओढ़े बैठा है. उस
तक वह लहर पहुंच ही नहीं पाती. शरणागत होने पर वह चादर उतार कर रख देनी होती है और
सन्त हमें इसी बात को याद दिलाने आते हैं. निर्भयता, कृतज्ञता पुरुषार्थ तब ही भीतर
जगता है. संत के भीतर अनवरत सुमिरन होता है. वह सहज ही भीतर प्रवेश कर सकता है,
आनन्द की वर्षा कर सकता है और उसमें भीग सकता है.
आनंदम।
ReplyDeleteज्ञानवर्धक एवं उपयोगी
ReplyDeleteसोचते तो हैं हो नहीं पाता है फिर कोशिश करते है चलिये ।
ReplyDeleteकोशिश अवश्य करें...
Deleteदेवेन्द्र जी व कुसुमेश जी, स्वागत व आभार !
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