Tuesday, July 22, 2014

एक सरस मुस्कान है भीतर

अक्तूबर २००६ 
संतजन कहते हैं, मानव जीवन पाकर भी जो भीतर की मुस्कान को जागृत नहीं कर सका वह पूर्ण जीया ही नहीं और वह धर्म भी धर्म नहीं जो सहज, मुक्त रूप से हमें हँसना नहीं सिखा देता. सहजता आती है जब कोई अपने कर्त्तव्यों का ठीक से निर्वाह कर सके. हमारा वास्तविक कर्त्तव्य क्या है, धर्म क्या है, यह गुरु ही हमें बताते हैं. शील, सत्य और स्नेह के गुणों के आधार पर भीतर की शक्ति को जागृत करने से ही कर्त्तव्य निबाहे जा सकते हैं. हमरा लक्ष्य स्पष्ट हो और ऐसा हो कि सत्य के निकट पहुंच सकें. सरल हृदय में ही धर्म निवास करता है. किसी तरह के कृत्रिम आवरण में हमें स्वयं को ढकना नहीं है, मृदुता को अपनाना है. विनम्रता को खोते ही हमारी चेतना विनाश की ओर चली जाती है. हम स्वयं को अभिव्यक्त कर सकें, अपने भीतर छिपी असंख्य शक्तियों को उजागर कर सकें. तभी हमारा इस जगत में आना सार्थक होगा और तभी भीतर की अमित मुस्कान पनपती है.


2 comments:

  1. सुंदर पोस्ट खुद से भेंट होनी ज़रूरी है।

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  2. स्वागत व आभार वीरू भाई !

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