दिसम्बर २०१३
हम रात्रि को ही स्वप्न नहीं देखते, दिन में भी एक
विचार धारा जो भीतर निरंतर चलती रहती है, हमारी स्वप्नावस्था का ही एक रूप है,
हमारे अनजाने में ही जो विचार विचरण करते है वही तो रात्रि में दृश्यों के रूप में
दिखने लगते हैं. यदि हमें अपने भीतर स्थित पवित्र चैतन्य का बोध सदा बना रहे तो हम
भीतर अखंड मौन का अनुभव कर सकते हैं. हम उससे बचे तभी तक रह सकते हैं जब तक सोये
हैं. हमारे भीतर जो चेतना है, वह सहज है, वह है ही, उसे होना ही है, न उससे कुछ बढ़कर
है न उससे कुछ कम है, सारे भेद ऊपरी हैं, भीतर एक ही तत्व है, वही परम सत्य है.
बढिया..
ReplyDeleteमहेंद्र जी स्वागत व आभार !
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