Sunday, August 4, 2013

उसी एक का सकल पसारा

दिसम्बर २००४ 
कितना कुछ हर क्षण हमारे आस-पास घटता रहता है, पल-पल कर समय आगे बढ़ता है, दिन बीतते हैं, वर्ष सदियाँ और युग बीतते हैं, हम वहीं के वहीं खड़े हैं, यह सब जो बदल रहा है उसे देखते हैं. हमारा तन बदला, मन बदला, भाव भी बदलते हैं, पर जहाँ कोई परिवर्तन नहीं, जो सदा से एक सा है, वह जो साक्षी है, वह चैतन्य जो हमारे भीतर भी है वही जो कण-कण में समाया है, उसकी उपस्थिति का भान यदि होने लगे तो समाधान मिलने लगता है, हमारा होना ही पर्याप्त होता है, तब न कहीं जाना है न आना है, न खोना है, यह जड़ता नहीं है, सहजता है, सहज होकर सारे कार्य अपने-आप होने लगते हैं, तब कर्तापन का अहंकार शेष नहीं रहता. हम प्रकृति के सहयोगी बन जाते हैं, विरोध में ऊर्जा क्षय है, द्वंद्व है. हमें द्वन्द्वातीत होना है, जहाँ कोई भेद नहीं रहता, संसार और स्वयं में भी कोई भेद नहीं रहता क्योंकि सब एक से ही उत्पन्न हुआ है. अपने ही हाथ से अपना विरोध कैसा ?     

6 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,आभार।

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  2. सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती********

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  3. "एक नूर ते सब जग उपज्या ,कौन भले मौन मंदे "

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  4. राजेन्द्र जी, महेंद्र जी, रमाकांत जी व वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !

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  5. सब एक से ही उत्पन्न हुआ है.
    सच

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