जनवरी २००५
हम भगवान को तो मानते हैं पर भगवान ‘की’
नहीं मानते, यदि हम key को भी अपना लें तो जीवन की कई गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं. हम
जितना-जितना बाहर सुख खोजते हैं, उतना उतना सत्य से दूर होते जाते हैं. तब मानव
अपने स्वार्थ के लिए वस्तुओं को ही नहीं व्रतों, नियमों यहाँ तक की नीतियों में भी
परिवर्तन कर लेते हैं. क्षणिक सुख के पीछे लालायित होकर अपने को नीचे गिराने में
भी आज कोई शर्म की बात नहीं समझता. लोग रिश्वत लेने को तो फिर भी बुरा मानते हैं
पर रिश्वत देने को नहीं. आज भ्रष्ट आचरण को सामान्य जीवन का अंग मान लिया गया है,
क्योंकि समाज के उच्च कहे जाने लोग ही इसे अपनाते हैं. अपनी इच्छा को ही सर्वोपरि मानने वाला समाज नीति, कानून तथा धर्म की परवाह
करना ही छोड़ देता है.
आज के हालात का सही तप्सरा। भ्रष्टाचार ही जीवन है। प्रजातंत्र का अस्थि मज्जा है। अमीर की शान है। सरकार की आन है। भ्रष्टों का प्राण है।
ReplyDeleteसंसार तो हमारे अन्दर हमारी कामनाओं में रह रहा है। बाहर से वस्तुओं को छोड़ने का कोई मतलब नहीं है उसकी पकड़ की डोरी तो अन्दर मन के हाथों में रहती है। मन में ही कामनाएं रहतीं हैं इन्द्रियाँ तो मात्र निमित्त बनती हैं। स्रोत समस्त इच्छाओं का हमारा मन ही है। जब अपने आप से ही व्यक्ति ख़ुशी प्राप्त करता है बाहर की किसी भी चीज़ पर जब मन निर्भर नहीं करता तब मन कबीर हो जाता है। ज्ञान प्राप्त करने पर व्यक्ति चीज़ों को स्वत :ही छोड़ देता है वह आपसे आप छूट जातीं हैं जब तक छोड़ना पड़ता है मन आज़ाद नहीं है। मन सूखी हुई लकड़ी की तरह हो जाए बिना धुंआ छोड़े जले तो समझो व्यक्ति स्थित प्रज्ञ हो गया।
स्थित प्रज्ञ का बहुत सुंदर वर्णन...आभार !
Deleteबिल्कुल सच कहा .....
ReplyDeleteबेहद विचारणीय बातें कही हैं आपने अपनी इस संक्षिप्त पोस्ट में...शुक्रिया।।।
ReplyDeleteअपनी इच्छा को ही सर्वोपरि मानने वाला समाज नीति, कानून तथा धर्म की परवाह करना ही छोड़ देता है.
ReplyDeleteऐसे समाज का सर्व नाश निश्चित जानो।
सदा जी व अंकुर जी स्वागत व आभार !
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