जगत है, जीव है, ईश्वर है और... परमात्मा है. जगत वह जिसमें
सारे अनुभव होते हैं, जीव वह जो अनुभव करता है, ईश्वर वह जिसने इस जगत की रचना की
है, और परमात्मा.. वह जो इन तीनों का आधार है, तीनों उससे ही निकले हैं और उस पर
ही टिके हैं. जीव जब तक अनुभवों में रस लेता रहेगा, सुख—दुःख का भागी बना रहेगा.
ईश्वर अनंत ज्ञान से परिपूर्ण सत्ता है. उसे सुख-दुःख नहीं व्याप्ता. जगत जड़ है
उसे भी सुख-दुःख नहीं होता. जीव जब इस खेल से ऊब जाता है तो भीतर जाता है, कारण तलाशता
है. ईश्वर उसे ज्ञान देता है. अब जगत भी उसे मित्रवत जान पड़ता है. इसके बाद परमात्मा
उससे दूर नहीं है.
जीव ईश्वर का अंश अविनाशि होते हुए भी जीव का आधार इस अवधि वाले नश्ववर जड मिट्टी नामरुप शरीर में अन्न सांस प्राण पर है। जीव-प्राण को संतो ने आत्मा राम नाम दिया है। भगवान की सत्ता का आधार ईश्वर की आज्ञा है और ईश्वर का आधार स्वयं आत्मा है। और आत्मा ईश्वर अंश अविनाशि जीव के सुख का स्वरूप है। इस तरह मनुष्य योनि में आकर जीव अपने आप को और अपने स्वरूप को जान लिया तो जैसे डिग्री प्राप्त करके इस लोक में सभी मनुष्य जीवो की सेवा का अवसर प्रदान होता है और सुखमय जीवन व्यतीत करता है उसी प्रकार आत्म साक्षात्कार होने पर मनुष्य मनुष्य से अखंड स्वरूप आत्मा का अनुभव कर भली सो प्रिति से भजने का अनंत अवसर प्राप्त कर लेता है।
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