२६ फरवरी २०१८
मानव जब तक स्वयं को मात्र देह मानता है तो पग-पग पर भौतिक सीमाओं
का अनुभव उसे होता है. सुबह से शाम तक देह की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भी
उसे संतुष्टि का अनुभव नहीं होता. कोई न कोई रोग अथवा पीड़ा भी देह को सताती है.
जीव भाव में रहने पर अर्थात स्वयं को मन मानने पर भी वह स्वयं को बंधन मुक्त नहीं
देखता. मन का स्वभाव है चंचलता. मन में अनेक विरोधी कामनाओं के उत्पन्न होने के
कारण वह कभी द्वंद्व मुक्त भी नहीं हो पाता. परमात्मा की पूजा भक्ति आदि मन से ही
होती है किन्तु एकाग्रता का अभाव होने के कारण इसका प्रभाव क्षणिक ही रहता है. जब
तक साधक ध्यान के अभ्यास द्वारा मन के पार जाकर स्वयं को निराकार रूप में अनुभव
नहीं कर लेता उसका मन आकुल रहता है. एक बार अपने भीतर अचल, विराट स्थिति का अनुभव
उसे जीवन की हर परिस्थिति को सहज रूप से पार करने की क्षमता दे देता है.
जय मां हाटेशवरी....
ReplyDeleteहर्ष हो रहा है....आप को ये सूचित करते हुए.....
दिनांक 27/02/2018 को.....
आप की रचना का लिंक होगा.....
पांच लिंकों का आनंद
पर......
आप भी यहां सादर आमंत्रित है.....
बहुत बहुत आभार कुलदीप जी !
Deleteध्यान से ही शून्य को प्राप्त किया जा सकता है।
ReplyDeleteआभार
सही कहा है आपने रोहितास जी, आपके जीवन में ध्यान घटित हो ऐसी शुभकामना है.
Deleteमेरी कविता रु ब रु पर आपकी कॉमेंट मिली
ReplyDeleteबहोत ज्यादा अच्छा लगा।
आप जैसी लेखिका जब इतनी गहन कॉमेंट करती हैं तो लगता है कि लिखना सफल हुआ।
😊😊😊
😊
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