१९ फरवरी २०१८
हमारा मन एक विशाल मन का अंश है, पर जैसे बहते हुए दरिया से जल
का एक भाग अलग-थलग पड़ जाये और एक पोखर बना ले, तो सूखने लगता है, वैसे ही अलग हुआ
यह मन बेचैन हो जाता है. जब तक हम उस विराट के साथ एकत्व का अनुभव नहीं कर लेते
हमारी तलाश जारी रहती है. बुद्धि यदि मोहग्रस्त है, अविद्या से मुक्त नहीं हुई है,
तो मन कामना और कल्पना से मुक्त नहीं हो पाता. सुख की कामना करते हुए वह स्वयं के
कल्पना जाल में इस तरह उलझ जाता है कि सत्य से बहुत दूर निकल जाता है. सत्संग के
प्रभाव से या ईश्वरीय कृपा से जब बुद्धि विवेक से युक्त होती है, तब मन अपने
स्वरूप की ओर लौटने लगता है.
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