मन दर्पण है, परमात्मा बिम्ब है, जीव प्रतिबिम्ब है. यदि मन का दर्पण स्वच्छ नहीं है तो प्रतिबिम्ब स्पष्ट नहीं पड़ेगा. संसार भी तब तक निर्दोष नहीं दिखेगा जब तक मन निर्मल नहीं होगा. हम अपने मन के दुर्भाव को जगत पर आरोपित कर देते हैं और व्यर्थ ही अन्यों को दोषी मानते हैं. जब भी हमने किसी की निंदा की है, अपना मत ही थोपा है. जगत जैसा है वैसा है, हम निर्णायक बनते हैं अपनी समझ के अनुसार, हमारी समझ न तो पूर्ण है न ही निर्मल है. यदि भीतर क्रोध है तो वह बाहर आने का मार्ग खोजेगा, यदि भीतर ईर्ष्या है तो वह रास्ता निकल लेगी. हम अन्यों को इसका कारण मानेंगे और एक दुष्चक्र में फंस जायेंगे. हमारी दृष्टि जैसी होगी सृष्टि वैसा ही रूप धर लेगी. यदि मन खाली हो अर्थात उसका कोई मत न हो तो दुनिया जैसी है वैसी ही दिखेगी. इसीलिए सन्त कहते हैं, अहंकार को त्यागे बिना शांति का अनुभव हो नहीं सकता. जब मन किसी भी धारणा, विचार या मान्यता से बंधा न हो तो जल की तरह बहता रहता है और उसमें अंतर की शांति का अनुभव सहज ही होता है .
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