हम साध्य और साधन का भेद नहीं कर
पाते इसलिए सदा असंतुष्ट बने रहते हैं. हमारे लिए जगत साध्य है और परमात्मा उसे
प्राप्त करने का साधन, जबकि संसार को साधन बनाकर हमें स्वयं और परमात्मा के पास
पहुँचना है. इस जगत में हम जो कुछ भी करते हैं वह कुछ न कुछ बनने अथवा पाने के लिए
करते हैं. जो हमारे पास है, जैसे हम हैं, वह पर्याप्त नहीं है. यह दौड़ कभी खत्म
होती नजर नहीं आती, संत कहते हैं यदि कोई थम जाये और जैसा वह है, जो उसके पास है,
उसका मूल्यांकन करे अथवा तो कुछ भी न करे बस तटस्थ होकर रहे तो धीरे-धीरे वह प्रकट
होने लगता है जो उसका मूल स्वभाव है. अपने स्वभाव में विश्राम पाते ही लगता है वह
तो पहले से ही मिला हुआ है, जिसकी उसे तलाश है. इस ठहरने में एक बात और घटती है जो
आवश्यक बदलाव है वह अपनेआप ही होने लगता है.
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