संतजन कहते हैं, परमात्मा का मिलना कठिन नहीं है, जो वस्तु हमारे निकट है उसको देखने के लिए कहीं जाना नहीं है, बल्कि उसके प्रति सजग होने की आवश्यकता है. हम अनुष्ठान, जप, तप आदि के द्वारा उसे पाना चाहते हैं, जो हमें मिला ही हुआ है।इनके द्वारा सद्गुरु हमें अहंकार तजने की कला सिखाते हैं, शरणागत होना सिखाते हैं और भीतर ही वह प्रकट हो जाता है जो सदा से ही वहाँ था. वह आत्मा के प्रदेश में हमारा प्रवेश करा देते हैं. आत्मा के रूप में परमात्मा सदा मन को सम्भाले रहता है, उसे रोकता है, टोकता है और परमात्मा के आनंद को पाने योग्य बनाता है, उसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता. वह सुह्रद है, हितैषी है, वह नितांत गोपनीय है उसे गूंगे का गुड़ इसीलिए कहा गया है. वह आनंद जो साधक को मिलता है सभी को मिले ऐसे प्रेरणा भी तब भीतर वही जगाता है.भक्ति का आरम्भ वहाँ है जहाँ हमें ईश्वर में जगत दिखता है और चरम वह है जहाँ जगत में ईश्वर दिखता है. पहले पहल ईश्वर के दर्शन हमें अपने भीतर होते हैं, फिर सबके भीतर उसी के दर्शन होते हैं. ईश्वर कण-कण में है पर प्रेम से उसका प्राकट्य होता है. सद्गुरु हमें वह दृष्टि प्रदान करते हैं जिससे हम परम सत्ता में विश्वास करने लगते हैं. ईश्वर का हम पर कितना उपकार है यह तो कोई सद्गुरु ही जानता है और बखान करता है. शब्दों की फिर भी कमी पड़ जाये ऐसा वह परमात्मा आनंद का सागर है.
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