धर्म के मूल में तीन बाते हैं, हम कहाँ से आये हैं, हम कहाँ हैं और कहाँ जाने वाले हैं? इनकी खोज ही हमें धर्म की ओर ले जाती है. संतों की वाणी सुनकर हमारे भीतर अपनी वास्तविक स्थिति का बोध जगता है. जिस क्षण कोई अपने सामने पहली दफा खड़ा हो जाता है, आमने-सामने..उसी क्षण वह सत्य को जान जाता है. उस क्षण उसके भीतर संसार से ऊपर उठने, जगने और व्यर्थ कामनाओं से मुक्त होने की चाह जगती है. वास्तव में हम उसी एक तत्व से आये हैं, उसी में हैं और उसी में लौट जाने वाले हैं. लेकिन लौटने से पूर्व हमें देखना है कि भीतर सुई की नोक के बराबर भी द्वंद्व न बचे, उसका मार्ग बहुत संकरा है, उसमें से एक गुजर सकता है। दुई मिटते ही सारा अस्तित्व हमारी सहायता को आ जाता है, आया ही हुआ है. बाहर से संत, शास्त्र व भीतर से दैवीय प्रेरणा मिलने लगती है और हम उसकी ओर बढ़ते चले जाते हैं. जहां वह है वहाँ सभी ऐश्वर्य हैं। वह हितैषी है, अकारण दयालु है, वह ही तो है जिसने यह खेल रचा है. अंतत: वह स्वयं ही तो इस सीमित जगत के रूप में दिखायी दे रहा है। जबकि वास्तव में वह अलिप्त है और अनंत है।
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