यह जगत ईश्वर का ही साकार स्वरूप है। जड़-चेतन सबका आधार एक ब्रह्म है। एक ही ऊर्जा भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो रही है। जीव और ब्रह्म में मूलतः भेद नहीं है, सारे भेद ऊपर के हैं। अंत:करण में चैतन्य का आभास होने से बुद्धि स्वयं को चेतन मानने लगती है, और मिथ्या अहंकार का जन्म होता है।अहंकार हरेक को पृथकत्व का बोध कराता है, यह अलगाव ही जगत में दुख का कारण है। जो व्यर्थ तुलना और स्पृहा के कारण व्यथित हो जाये, जो नाशवान वस्तुओं के कारण स्वयं को गर्वित अनुभव करे, उस अहंकार का भोजन दुख ही है। मन, बुद्धि आदि जड़ होने के कारण स्वतंत्र नहीं है, प्रकृति के गुणों के अधीन हैं।जैसे कोई खिलौना स्वयं को गतिशील देखकर चेतन मान ले ऐसे ही चिदाभास या प्रतिबिंबित चेतना स्वयं को कर्ता मान लेती है। मानव सदा एकरस, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चैतन्य आत्मा है।वह पूर्ण है, प्रेमस्वरूप है, आनंद उसका स्वभाव है। प्रेम तथा आनंद को व्यक्त करना दैवीय गुण हैं। आत्मा में रहना सदा स्वीकार भाव में होने का नाम है।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 27 जून 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बहुत आधार यशोदा जी!
Deleteजड़ चेतन सबका आधार एक ब्रह्म है.. बहुत सुंदर व्याख्या।
ReplyDeleteस्वागत व आभार जिज्ञासा जी!
Deleteजगत, जीव और ब्रह्म की, सुन्दर व्याख्या !
ReplyDeleteस्वागत व आभार गोपेश जी!
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