Tuesday, June 27, 2023

जिसने भेद स्वयं का जाना

संत व शास्त्र कहते हैं, विद्यामाया  विशिष्ट चेतन के कारण ब्रह्म ईश्वर की उपाधि  ग्रहण करता है और अविद्यामाया विशिष्ट चेतन के कारण ब्रह्म जीव की उपाधि ग्रहण करता है। जीव और ईश्वर का एकत्व उनके ब्रह्म होने में है और भेद विद्या और अविद्या के कारण है। ईश्वर माया का अधिपति है और जीव माया का सेवक है। ईश्वर योगमाया  का उपयोग करके जगत का कल्याण करता है, जीव महामाया के वशीभूत होकर विकारों से ग्रस्त हो जाता है। ईश्वर सदा अपने चैतन्य स्वरूप को जानता है, जीव स्वयं को जड़ देह और मन आदि मान लेता है। जिस क्षण जीव को अपने ब्रह्म होने का भान हो जाता है, वह ईश्वर से जुड़ जाता है।  


2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (29-06-2023) को    "रब के नेक उसूल"  (चर्चा अंक 4670)  पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !

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