श्री श्री कहते हैं, चंड-मुंड, मधु-कैटभ, शुंभ-निशुंभ तथा रक्त बीज आदि सभी असुर हमारे भीतर हैं. हृदय और मस्तिष्क ही चंड-मुंड बन जाते हैं, यदि ह्रदय अति भावुक है और मस्तिष्क अति बौद्धिक है।ऐसी स्थिति में दोनों असुर की भाँति हमें दुख में पहुँचाते हैं। भावुकता और बौद्धिकता का संतुलित मेल ही हमारे जीवन को सुंदर बनाता है. मन में क्षण-क्षण जन्मने वाले राग-द्वेष ही मधु-कैटभ हैं और उनसे मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती जब तक हमारी चेतना प्रेम में विश्राम न पा ले. जन्मों-जन्मों के संस्कार जो रक्त-बीज के रूप में हमारे भीतर पड़े हैं, उनसे भी तभी मुक्त हुआ जा सकता है जब दैवी शक्ति भीतर जागे, हमारी सुप्त चेतना मुक्त हो. अभी तो तन, मन व चेतना तीनों एक-दूसरे से चिपके हुए हैं, एक को पीड़ा हो तो दूसरा उसे अपनी पीड़ा मान लेता है, एक को हर्ष हो तो दूसरा उसे अपना हर्ष मान लेता है और होता यह है कि जगत में रहते हुए तन या मन को तो सुख-दुःख का अनुभव होता ही है, तो हर वक्त बेचारी चेतना कभी परेशान कभी दुखी या ख़ुशी में फूली हुई रहती है, उसे कभी मन के साथ अतीत में जाकर पछताना पड़ता है तो कभी भविष्य में जाकर आशंकित होना पड़ता है, वह कभी चैन से रह ही नहीं पाती, नींद में भी मन उसे स्वप्न की झूठी दुनिया में ले जाता है. उसकी मुक्ति ही हर साधना का लक्ष्य है।
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